*पुरानी पेंशन योजना में खोट तो विधायकों-सांसदों को उसका लाभ क्यों..?*
*सरकारें, नई पेंशन योजना के सामाजिक-आर्थिक दुष्परिणामों को समझें*
*पुरानी पेंशन योजना हो बहाल, नहीं तो संघर्ष का बिगुल बजाएं कर्मचारी*
*लेख : पंकज तन्हा*
*नाहन।* विधायकों-सांसदों को पुरानी पेंशन योजना का लाभ क्यों..। कितना अजीब लगता है जनसेवा के नाम पर राजनीति में आए विधायकों, सांसदों को चाहिए मोटी तनख्वाह, कई तरह के भत्ते। अपने परिजनों तक के लिए मुफ्त सुविधाएं। शपथ लेते ही पेंशन का अधिकार। *वो भी तब, जब नेता, जनसेवा के लिए राजनीति में आने का दम भरते हैं। दूसरी ओर एक सरकारी कर्मचारी।* जो उम्र का एक चौथाई हिस्सा पढ़ाई में गुजार देता है। उसके बाद कुछ साल नौकरी पाने की जद्दों जहद में बीत जाते हैं। फिर नौकरी मिलती भी है तो अनुबंध पे..। कई साल बाद होता है नियमित। पूरी जवानी मेहनत से काम करता है। अंत में अब मिल क्या रहा है नई पेंशन योजना। जिसमें उसे व उसके परिवार को न तो आर्थिक सुरक्षा मिल रही है और न ही सामाजिक सुरक्षा।
आज पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरल को छोड़कर पूरे देश में नई पेंशन योजना लागू हो चुकी है। मई 2003 के बाद लगे कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना से वंचित कर दिया गया है। फिर भी कर्मचारी खामोश हैं।
कितनी विचित्र बात है। कर्मचारी लोकतंत्र में जिन सरकारों को मां का दर्जा देते हैं। वही मां अपने बच्चों को बुढापे में भूखों मरने के लिए छोडऩे जा रही है। चिंता की बात है कि आखिर बुढापे में एक सरकारी कर्मचारी करेगा क्या। किसी तरह वह अपने तथा अपने परिवार का गुजारा करेगा। भारतीय संविधान में वैसे तो सबको समानता का अधिकार दिया गया है। लेकिन समानता नजर कहीं आती नहीं।
*वर्ष 2003 से पहले लगे कर्मचारी जो उतना ही कार्य कर रहे हैं। जितना कि 2003 के बाद लगे कर्मचारी। फिर भी दोनों में जमीन आसमान का अंतर पैदा कर दिया गया है।* पुराने कर्मचारी जहां हजारों रुपये की पेंशन के साथ अपना बुढापा अच्छे से गुजारेंगे। वहीं नये कर्मचारियों को बुढापे में दर-दर की ठोकरें खाने को विवश होना पड़ेगा।
वैसे तो जब नई पेंशन योजना शुरू की गई थी। उसी दौरान उसका विरोध किया जाना चाहिए था। कर्मचारियों को सड़कों पर उतर जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। वैसे भी किसी योजना को लागू करने के बाद उसके सुखद व दुखद परिणाम देरी से ही सामने आते हैं।
अब दुष्परिणाम सामने आने भी लगे हैं। 2003 के बाद जो कर्मचारी 10 से 15 साल की सेवा करने के बाद सेवानिवृत हुए हैं। उन्हें मात्र एक हजार रुपये ही पेंशन मिल रही है।
कोई महामूर्ख भी समझ सकता है कि एक हजार में कोई कैसे अपना व अपने परिवार का पेट पालेगा। *आखिर नेता लोगों की दुर्गति करने पर तुले हुए क्यों हैं। जनसेवा के नाम पर विधायक व सांसद बने नेता को शपथ लेते ही पुरानी पेंशन योजना का अधिकार आज भी प्राप्त है।* कई तरह की सुविधाएं तो नेतााअें के द्वारा ली ही जा रही हैं। कुर्सी चली भी गई तो क्या गम है। बुढापे के साथ-साथ जवानी में भी मौज करने के लिए हजारों रुपयों का प्रबंध तो कर ही लिया है।
बात अगर इसके सामाजिक पहलुओं की हो तो इसकी तस्वीर बेहद दर्दनाक व भयावह है। नए कर्मियों का जीपीएफ की जगह सीपीएफ काटा जा रहा है। कर्मचारी मूल वेतन का मात्र 10 प्रतिशत ही उसमें जमा करवा सकता है। पहले कर्मचारी जीपीएफ में जितनी चाहे राशि जमा कर सकता था। लेकिन नए कर्मचारियों के हाथ बांध दिए हैं। वह अपनी इच्छा से राशि जमा भी नहीं कर सकता। 15-20 साल की नौकरी के बाद जब वह सेवानिवृत होगा तो उसके पास किसी तरह की आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा नहीं होगी।
यदि वर्तमान में हम आस-पास का माहौल देखें तो जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हैं। वहां बुजुर्गो के साथ क्या गुजर रही है सभी जानते हैं। कुछ ऐसे भी परिवार हैं जहां पेंशन के दम पर ही पूरा घर खर्च चल रहा है। सोचिए कुछ साल बाद यह माहौल कैसा होगा। अधिकतर घरों में बुजुर्गो की स्थिति दयनीय हो जाएगी। कई परिवार उजड़ जाएंगे। इसके लिए जिम्मेवार होंगी सिर्फ सरकारें।
अब जब पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का बिगुल बजाया जा रहा है। सरकारें वित्तीय घाटे का रोना रोने लग रही हैं। इस घाटे की जिम्मेवारी क्या सरकारी कर्मचारियों पर ही है। उन जनप्रतिनिधियों पर नहीं जो कि आज भी पुरानी पेंशन योजना प्राप्त कर रहे हैं। कई तरह के भत्ते व सुख सुविधाएं भी जनता की कमाई पर प्राप्त कर रहे हैं। वह भी तब, जब वह ताल ठोककर जनसेवा की बात करते हुए राजनीति में आने की बात करते हैं।
*एक बात स्पष्ट कर दूं किसी को भी इसमें कोई एतराज नहीं कि जनप्रतिनिधियों को पुरानी पेंशन योजना का लाभ न मिले। जरूर मिलना चाहिए। लेकिन उससे पहले सभी कर्मचारियों को इस योजना का लाभ मिलना चाहिए।*
उम्मीद है कि सरकारें इस बात को समझेंगी। नई पेंशन योजना के आर्थिक व सामाजिक दुष्परिणामों को जानेगी और पुरानी पेंशन योजना बहाल करेगी।
*यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो सभी कर्मचारियों को इसके खिलाफ सड़कों पर उतर कर संघर्ष का बिगुल बजाना चाहिए।*
-- *पंकज तन्हा*
*नाहन, जिला सिरमौर(हिप्र)*
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