जातिगत उत्पीड़न के प्रश्न पर सीपीआई (एम) का स्पष्ट स्टैंड उसकी विचारधारा की मज़बूती
जातिगत भेदभाव: हिमाचल की सच्चाई और समाज के लिए चेतावनी
— आशीष कुमार, संयोजक, दलित शोषण मुक्ति मंच, सिरमौर
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हमारे देश का संविधान हमें समानता, गरिमा और न्याय का अधिकार देता है, लेकिन 21वीं सदी में यह कैसी विडंबना है कि आज भी जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएँ जारी हैं। देवभूमि हिमाचल में हाल ही में शिमला जिले के चिड़गांव तहसील में 12 वर्षीय मासूम सिकंदर ने जातिगत उत्पीड़न से तंग आकर ज़हर खाकर अपनी जान दे दी। यह घटना न केवल एक परिवार का दुख है, बल्कि पूरे समाज और शासन व्यवस्था के लिए एक कड़ी चुनौती है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में एक समान और न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ रहे हैं, या आज भी घिसी-पिटी व्यवस्था के बोझ को छुपाकर बाहर समानता का आभास दिखाया जा रहा है और सरकारी आंकड़ों में स्थिति बेहतर प्रस्तुत की जा रही है। भारत के आजाद होने से पूर्व और आजादी के बाद क्या तस्वीर बदली है, या वही तस्वीर केवल सामने से साफ दिखा कर पेश की जा रही है? 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ और संविधान बना, आज़ादी का जश्न मनाया गया, लेकिन आज भी देश में कुछ वर्ग दास्ता जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं।
देश के संविधान के अनुच्छेद 14 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है, और अनुच्छेद 17 में छुआछूत का उन्मूलन किया गया है। इसके अलावा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 में जातिगत उत्पीड़न के मामलों में कठोर दंड का प्रावधान है। इसके बावजूद, हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में सिकंदर की मौत यह दर्शाती है कि कानून और संविधान की धाराएँ ज़मीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। यह समझना आवश्यक है कि कानून की धाराएँ क्यों जमीनी स्तर पर लागू नहीं हो रही हैं और इसके पीछे की राजनीति को पहचानना अत्यंत आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश हाल ही में 100 प्रतिशत साक्षर राज्य के श्रेणी में शामिल हुआ और मुख्यमंत्री को इसके लिए पुरस्कार भी प्राप्त हुआ, लेकिन ऐसी घटनाओं को देखते हुए लगता है कि शिक्षा व्यवस्था और समाज में चेतना में गंभीर कमी है।
हिमाचल प्रदेश को अक्सर एक शांत और शिक्षित राज्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन जातिगत हिंसा की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। 2018 में सिरमौर जिले की शिलाई विधानसभा में दलित अधिवक्ता केदार सिंह जिंदान की हत्या, पांवटा साहिब में दलितों के घर जलाए जाने की घटना, शिमला में सूरज हत्याकांड, चंबा जिले में 2023 में दलित युवक की हत्या, हमीरपुर में दलित व्यक्ति के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद, कुल्लू जिले में मिड-डे मील योजना में दलित बच्चों के साथ भेदभाव, मंडी जिले में अंतरजातीय विवाह करने वाले परिवार को धमकियाँ, और सिरमौर जिले में माइक पर अनुसूचित जाति के लोगों को शादी में अलग बैठने की घोषणा—ये सभी घटनाएँ जातिवाद की गहरी जड़ों को दर्शाती हैं। ये केवल वे घटनाएँ हैं जिनका जिक्र सामने आया है; हजारों अन्य घटनाओं का कहीं कोई दस्तावेज़ या मुकदमा नहीं होता।
हिमाचल की घटनाओं को राष्ट्रीय घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखना आवश्यक है। 2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देशभर में अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के छात्रों के उत्पीड़न की पोल खोल दी। गुजरात में दर्शन सोलंकी की हत्या ने साबित किया कि दलित युवा अभी भी भय और प्रताड़ना के साये में जी रहे हैं। 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की के साथ क्रूर बलात्कार और उसके बाद हत्या की घटना ने पूरे देश को हिला दिया और दिखाया कि जातिगत अत्याचार कितने निर्मम रूप ले सकते हैं। ये घटनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि हिमाचल में सिकंदर जैसी घटनाएँ केवल स्थानीय नहीं हैं, बल्कि देशभर में समान समस्या का हिस्सा हैं।
एक चिंताजनक घटना और है, जिसमें एक बच्चे को केवल इसलिए कि वह अनुसूचित जाति का था, राजपूत परिवार के घर में प्रवेश करने पर दंडित करने के लिए और “शुद्धिकरण” करने के बहाने बकरे की मांग की गई। यह घटना जातिवाद के साथ-साथ अंधविश्वास और रूढ़िवाद की जड़ें उजागर करती है। समाज में यह दिखाता है कि शिक्षा और संवेदनशीलता के बावजूद कुछ क्षेत्रों में पुराने धार्मिक रीति-रिवाज और अंधविश्वास का प्रभाव अभी भी मजबूत है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़े भी स्थिति की गंभीरता को उजागर करते हैं। 2020 में देशभर में अनुसूचित जातियों के खिलाफ लगभग 50,291 अपराध दर्ज हुए, जो 2022 में बढ़कर 57,582 हो गए। इसी अवधि में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों की संख्या भी बढ़ी। हिमाचल प्रदेश में 2021 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ 244 मामले दर्ज हुए, जो 2022 में घटकर 210 हो गए, जिनमें से 92 मामले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज थे। दलितों की ज़मीन पर अवैध कब्ज़े के 33 मामले सामने आए, और न्यायालयों में ऐसे 856 मामले लंबित थे।
हिमाचल प्रदेश में हाल ही जिला सिरमौर में ऊँची जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के बाद अनुसूचित जाति वर्ग की समस्याएँ और उत्पीड़न बढ़ने की संभावना है। यह कदम सामाजिक असंतुलन और भेदभाव को और बढ़ावा दे सकता है, जिससे पहले से ही हाशिए पर खड़े समुदायों की स्थिति और भी दयनीय हो सकती है। इस निर्णय से यह सवाल उठता है कि क्या यह कदम संविधान की समानता की भावना के अनुरूप है?
इन हालात में ज़रूरत है कि कानून का सख़्ती से पालन हो, हर शिकायत पर तत्काल एफआईआर दर्ज की जाए और फास्ट-ट्रैक कोर्ट में सुनवाई हो। समाज में जागरूकता फैलाई जाए, स्कूल-कॉलेजों में जातिवाद विरोधी शिक्षा दी जाए और पीड़ित परिवारों को केवल आर्थिक मुआवज़ा ही नहीं बल्कि सुरक्षा और सम्मान भी मिले। सरकारों और सामाजिक नेतृत्व को जातिवाद के ख़िलाफ़ स्पष्ट नीति और खुला रुख़ अपनाना होगा।
सिकंदर की मौत हिमाचल ही नहीं, पूरे देश के लिए चेतावनी है। यदि संविधान और कानून के रहते हुए भी एक बच्चा जातिगत अपमान से तंग आकर अपनी जान ले ले, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी व्यवस्था विफल रही है। दलित शोषण मुक्ति मंच की ओर से हम माँग करते हैं कि सिकंदर की मौत के दोषियों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत कठोर कार्रवाई हो, पीड़ित परिवार को न्याय और सुरक्षा मिले और हिमाचल में जातिवाद समाप्त करने के लिए ठोस नीति लागू की जाए। सभ्य समाज वही कहलाता है, जहाँ किसी को उसकी जाति के कारण जीने का हक़ न छीना जाए। सिकंदर की मौत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमें संविधान की आत्मा—समानता और न्याय—को सचमुच ज़मीनी स्तर तक ले जाना होगा।
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