वेलफेयर डिपार्टमेंट का कार्य देने से महिला एवं बाल विकास विभाग के मुख्य उदेश्य होंगे प्रभावित*

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*वेलफेयर डिपार्टमेंट का कार्य देने से महिला एवं बाल विकास विभाग के मुख्य उदेश्य होंगे प्रभावित*   *जब काम ही आंगनवाड़ी वर्कर ने करना है तहसील कल्याण अधिकारी के पद  का नहीं है कोई औचित्य* *आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के हितों का हो संरक्षण* *Press note:----* आंगनवाड़ी वर्करज एवं हेल्परज यूनियन संबंधित सीटू की राज्य अध्यक्ष नीलम जसवाल और वीना शर्मा ने जारी एक प्रेस ब्यान में कहा की महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं पर वेलफेयर विभाग का काम थोपने का निर्णय अत्यधिक चिंताजनक है।  कार्यकर्ताओं से अतिरिक्त काम करवाना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि इससे बाल विकास विभाग के कार्यों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वीना  शर्मा , नीलम जसवाल  ने बताया की  आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का मुख्य कार्य बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण की देखभाल करना है, न कि वेलफेयर विभाग के कार्यों को संभालना। यदि वेलफेयर विभाग का कार्य भी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने ही करना है  तो तहसील कल्याण अधिकारी के पद  का क्या औचित्य और वेलफेयर डिपार्टमेंट का क्या कार्य रह जाता...

साम्प्रदायिकता का सवाल और भगतसिंह। शहीदे आज़म भगत सिंह के जन्मदिन पर क्रन्तिकारी स्मरण।


 साम्प्रदायिकता का सवाल और भगतसिंह।

शहीदे आज़म भगत सिंह के जन्मदिन पर क्रन्तिकारी स्मरण।


आज के दौर में यह समीचीन होगा कि शहीद भगतसिंह का जन्म दिवस साम्प्रदायिकता विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाय. इस सुझाव के पीछे दो वज़ह हैं. एक वज़ह तो यह है कि, जैसा कि हम सभी जानते हैं, आज साम्प्रदायिकता चरम पर है. छद्म रास्त्रीयता की मुद्रा अपना कर वह अति आक्रामक ढ़ंग से काम कर रही है, जिसके फलस्वरूप देश के अन्दर सामाजिक भाईचारा, धर्म निरपेक्षता का आदर्श, प्रजातांत्रिक मूल्य तथा मानवाधिकार सभी के लिए संकट पैदा हो गया है. १९वीं सड़ी के आठवे दशक में फ्रांस के जनवादी नेता गम्बेत्ता ने कहा था “पादरीवाद, यही है दुश्मन”. इस कथन में पादरीवाद के स्थान पर साम्प्रदायिकता शब्द को रख दीजिये और यह भारत के लिए सटीक हो जाता है. दूसरी वज़ह यह है कि १९२० के दशक में जब भगतसिंह क्रान्ति के पथ पर अग्रसर थे देश साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा था. उस दौर में भगतसिंह ने दृण साम्प्रदायिकता विरोधी रुख अपनाया. उसके कारणों का विश्लेषण किया तथा उससे मुक्ति के उपायों पर भी विचार किया. साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी भगतसिंह के जन्म दिवस को साम्प्रदायिकता विरोधी दिवस के रूप में मनाने का मतलब है साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष को तेज़ कर साम्प्रदायिक ताक़तों के चंगुल से देश को मुक्त करने का संकल्प लेना. 

१९२७ में क्रांतिकारियों के मुखपत्र “कीर्ति” में शहीद भगतसिंह का एक लेख प्रकाशित हुआ. इस लेख का शीर्षक है “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज़”. भ्यागात्सिंह का यह आलेख आज भी प्रासंगिक है क्योंकि इसमें उन्होंने साम्प्रदायिकता के लिए जिम्मेदार जिन दो प्रमुख कारणों का उल्लेख किया है वह आज भी काम कर रहे हैं. यह प्रमुख कारण हैं (१) साम्प्रदायिकता फैलाने और दंगे करवाने में साम्प्रदायिक राजनीतिज्ञों की भूमिका तथा (२) साम्प्रदायिकता के प्रचार-प्रसार में समाचारपत्रों (आजू के सन्दर्भ में प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) की भूमिका. अपने लेख में उन्होंने साफ़ शब्दों में लिखा था “ इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है ” शहीद भगतसिंह का यह विश्लेषण आज के सन्दर्भ में भी सही है.

आज हम सभी देख रहें हैं कि कुछ टी.वी. चैनल ने साम्प्रदायिक जहर फैलाने का और मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने का ठेका ले लिया है. सुदर्शन चैनल हो या रिपब्लिक या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय बीजेपी का आई.टी. सेल या उनके नक़्शे कदम पर चलने बाले अन्य चैनल तथा एंकर, वह सांप्रदायिकता के वायरस के मुख्य बाहक बन गए हैं. दुर्भाग्य से स्थानीय समाचारपत्रों की एक अच्छी खासी संख्या है जो बद चढ़ कर इसमें भागीदारी करके यह सिद्ध कर रही है कि हम किसी से कम नहीं. भगतसिंह ने अपने आलेख में ऐसे पत्रकारों को बेनकाब भी किया और साथ ही उन्हें समाज के प्रति उनके दायित्व का भी बोध कराया.

भगतसिंह के शब्दों में “ अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था ” भगतसिंह के समय में केवल प्रिंट मीडिया था, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था. अगर होता तो उसके लिए भी वह यही कहते. भगतसिंह को बड़े क्षोभ के साथ यह लिखना पडा  कि “ पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा होगया है. यह लोग एक दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करबाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं.” उन्होंने पत्रकारों के आचरण पर लिखा ”इन्होने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े कराबाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.” शहीद भगतसिंह ने अपने समय में जो देखा वह आज भी घटित हो रहा है. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक हिस्से ने मुस्लिमों के खिलाफ विष वामन करना तथा हर मुद्दे को हिन्दू बनाम मुस्लिम के रूप में पेश कर सामाजिक भाईचारा तथा साझी राष्ट्रीयता को नष्ट कर संघ परिवार के हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र के अजेंडे को आगे बढ़ाना ही अपना एकमात्र कर्तव्य मान लिया है. जनता के सरोकार- शिक्षा, स्वाश्थ्य, रोज़गार तथा बदहाल होती क़ानून व्यवस्था उनके लिए महत्त्व नहीं रखते. उनकी ऊर्जा तबलीगी जमात को कोरोना के लिए जिम्मेदार ठहराने में (जिसके लिए उच्च न्यायालय उन्हें फटकार लगा चुका है), मुंबई में रेलवे स्टेशन के पास यात्रा के लिए जमा हुई प्रवासी मज़दूरों की भीड़ के लिए स्टेशन के पास स्थित मस्जिद को उत्तरदायी बताने में, पहले लव जेहाद और अब आईएस की परीक्षा में मुस्लिम युवाओं की सफलता को सर्विस जेहाद की कुटिल चाल के रूप में प्रचारित कर भय और आशंका का माहौल पैदा करने में (सुदर्शन चानेल के इस प्रसारण पर सर्वोच्च न्यायालय को रोक लगाना पडी), साम्प्रदायिक तनाव और झगड़ों की एकतरफा और पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग करने में खर्च होती है. आज की तारीख में मीडिया साम्प्रदायिकता के वायरस का मुख्य वाहक बन गया है.

मीडिया के साथ ही शहीद भगतसिंह ने साम्प्रदायिकता के प्रचार-प्रसार और साम्प्रदायिक दंगों में राजनेताओं की भूमिका पर भी गौर किया था. अपने समय के हालत का विश्लेषण कर उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला वह है ” वे नेता जो साम्प्रदायिक लहर में जामिले हैं उस तरह के तो बहुत हैं. उस तरह के तो एक ईंट उठाओ तो सौ निकलते हैं. इस समय बे नेता जजों कि दिल से सभी का भला चाहते हैं अभी बहुत थोड़े हैं और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुयी है कि वह भी इसे रोक नहीं पा रहे ” शहीद भगतसिंह ने अपने समय के उन नेताओं का भी जिक्र किया जो  साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के सामने खड़े होने के बजाय “अपना सिर छुपाये चुपचाप बैठे हैं.” भगतसिंह साम्प्रदायिक नेताओं के खिलाफ थे. वह लाला लाजपतराय का बहुत सम्मान करते थे. किन्तु, जब लाजपतराय एक हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े तो भगतसिंह ने उनकी आलोचना बायरन की कविता “लॉस्ट लीडर” के माध्यम से की. भगतसिंह के समय में और उनके बाद भी इन साम्प्रदायिक नेताओं की भूमिका स्वतन्त्रता संग्राम में नकारात्मक रही. उन्होंने खुल कर अंग्रेजों का साथ दिया. आज की परिस्थिति कहीं अधिक विषम है. संघ परिवार ( जो हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता की धुरी है तथा स्वतंत्र भारत में होने बाले दंगों की जांच करने बाले सभी आयोगों ने उसकी भूमिका को रेखांकित किया है ) का राजनीतिक मंच भारतीय जनता पार्टी आज केंद्र में और अधिकाँश प्रांतों में सत्तासीन है. उसके द्वारा राजसत्ता का खुल कर इस्तेमाल अपने साम्प्रदायिक अजेंडे को आगे बढाने के लिए किया जा रहा है. उनके साथ गठबंधन करने बाले राजनीतिक दल साम्प्रदायिकता के इस उभार में अपनी भागीदारी के अपराध से बाख नहीं सकते हैं. अफसोस की बात तो यह है कि कल तक जो राजनीतिक दल खुल कर साम्प्रदायिकता का विरोध करते थे, आज यह सोच कर कि ऐसा  करने से हिन्दू मतदाता उनसे दूर हो सकता है “ अपना सिर छुपाये चुपचाप बैठे हैं.” इस स्थिति में यह वामपंथी दलों का दायित्व हो जाता है कि देश की एकता और अखण्डता की रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध अपनी लड़ाई को और तेज़ करें.

भगतसिंह के अनुसार साम्प्रदायिकता के मूल में आर्थिक कारण है “यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजे तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है.” वह आगे लिखते हैं “विश्व में जो भी काम होता है उसकी तह में पेट का सवाल ज़रूर होता है....भारत में आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी दे कर किसी और को अपमानित करबा सकता है. भूख और दुःख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत टाक पर रख देता है,” स्वतंत्र भारत में और पिछले छः वर्ष में ख़ास तौर पर सरकारों ने जो जन विरोधी पूंजीपतिपरस्त आर्थिक नीतियाँ अपनाई हैं उनके चलते आज भी देश के आम आदमी की स्थिति में और शहीद भगतसिंह के समय के आम आदमी की स्थिति में कोई बुनियादी गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है और इसलिए वह आसानी से साम्प्रदायिक ताक़तों के हाथ में खेल जाता है.

अपने इस विश्लेषण के आधार पर ही शहीद भगतसिंह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जनता की आर्थिक स्थिति में सुधार कर के तथा उसे सही चेतना से लैस करके ही साम्प्रदायिकता का इलाज़ किया जा सकता है. यह सही चेतना क्या है? भगतसिंह के अनुसार “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रुरत है. गरीब मेहनतकशों तथा किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बाख कर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ नहीं करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के चाहे वे किसी भी जाती, धर्म,या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल, और राष्ट्रीयता और देश के भेदभाव मिटा कर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करो,“ यह कार्य कठिन अवश्य है किंतु असंभव नहीं है. ज़रुरत है किसानों,मज़दूरों तथा गरीबों के संघर्षों को तेज कर वैचारिक स्तर पर उन्हें वर्ग चेतना लैस करने के काम में तेज़ी लाना.    

भगतसिंह को हाईजैक करने का हास्यास्पद प्रयास

संघ- परिवार की त्रासदी यह रही है कि “आक्रामक छद्म राष्ट्रीयता” का पैरोकार यह संगठन किसी भी राष्ट्र नायक को, जिसने आज़ादी की लड़ाई में कोई भूमिका अदा की हो, पैदा नहीं कर सका. इस कमी को दूर करने के लिए वह समय समय पर राष्ट्र नायकों के विचारों को तोड़ मरोड़ कर पेश करके उन्हें अपने पाले में खीचने का प्रयास करता रहा है. उन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपने आदर्श के रूप में पेश किया. स्वामी विवेकानंद का यह स्पष्ट मानना था कि भारत का विकास हिंदु–मुस्लिम एकता और भाईचारा से ही संभव है. “हमारी मातृभूमि के लिए आशा की एकमात्र किरण दो महान व्यवस्थाओं हिन्दुवाद और इस्लाम का- वेदांत मष्तिष्क और इस्लामिक सरीर का मेल है.”  सरदार पटेल के प्रति उनकी भक्ति में उभार आया हुआ है जबकि स्वतंत्र भारत में गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने ही उन पर प्रतिबंध लगाया. संघ परिवार का एकमात्र लक्ष्य भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलना है, जबकि पटेल की नज़र में “ हिन्दू राष्ट्र पागल आदमियों की अवधारणा है” संविधान सभा में पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था “यह बहुसंख्यक समुदाय के ऊपर है कि वह उदारता का परिचय दें और अल्पसंख्यकों के अन्दर विश्वास की भावना पैदा करें” करोड़ों खर्च कर पटेल की मूर्ति बनबाने बाले उनके विचारों की मूर्ती के भंजक ही सिद्ध हुए हैं. . अपनी विचारधारा के धुर विरोधी बाबासाहेब आंबेडकर को अपने खेमे का बताने की बचकानी कोशिश उनके द्वारा लगातार की जा रही है.

आज से लगभग १० वर्ष पूर्व उनके द्वारा शहीद भगतसिंह को भी अपने गोल में शामिल करने की हास्यास्पद कोशिश की गयी. मध्यप्रदेश में संघपरिवार के एक आनुषांगिक संगठन ने अपने पोस्टर में शहीद भगतसिंह को स्थान देकर यह सन्देश देना चाहा कि शहीद भगतसिंह भी उनके ब्रांड के हिंदुत्व के समर्थक थे. इस प्रयास को हास्यास्पद ही कहा जाएगा. शहीद भगतसिंह के कर्म और विचार संघ परिवार के कर्म और विचार के ठीक उलट थे. एक और २३ साल का नौजबान था जिसने अपने जीवन की आहुति देश की आज़ादी के लिए दे दी, दूसरी और वह परिवार था जिसने स्वतन्त्रता संग्राम के हर मोड़ पर साम्राज्यवादियों का साथ देते हुए देश के साथ गद्दारी की. संघ परिवार की जान वर्णाश्रम धर्म और जातिप्रथा में बसती है. उनके लिए मनु स्मृति विश्व का सर्वोत्तम संविधान है. भगतसिंह जातिप्रथाऔर उस पर आधारित उत्पीडन व अत्याचार के कट्टर विरोधी थे. आज संघ परिवार द्वारा संचालित तथा नियंत्रित सरकारें दिन-रात अदानी-अम्बानी की सेवा में लगी हुईं है, जबकि शहीद भगतसिंह को चिंता इस बात की थी कि गोरे लूटने बालों की जगह काले लूटने बाले सत्ता में न आ जायं, भगतसिंह का सपना किसान- मजदूर के समाजवादी राज्य का था. संघी सरकारों ने किसानों तथा मज़दूरों को बड़े पूंजीपतियों का निवाला बना कर रख दिया. संघ को धर्म पर आधारित हिन्दू राष्ट्र चाहिए शहीद भगतसिंह नास्तिक और धर्म निरपेक्ष थे.

आज के दौर में संघ परिवार से राष्ट्र की रक्षा करना ही सच्ची देशभक्ति है. यही भगतसिंह और उनकी शहादत को सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 

-एस पी कश्यप

Comments

  1. भगत सिंह तू अभी मरा नही तू जिंदा है ।

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