*आखिर भारत में क्यों नहीं होता जातीय भेद और ब्राह्मणवादी (मनुवादी) वर्चस्व के खिलाफ अमेरिका जैसा प्रतिरोध?*
सुरेश कुमार हमीरपुर
ट्रेड यूनियन सीटू से सम्बंधित
अक्सर हमारे यहां मिडिल क्लास के इंजिनियरिंग, मेडिकल, साइंस, मैनेजमेंट के डिग्रीधारी बात बात में भारत की तुलना अमेरिका से करते नहीं थकते, और पूरी कोशिश करते हैं कि वे या उनके बेटे- बेटियां यहां से डीग्री लेकर अमेरिका में नौकरी पा जायें और मौका मिले तो वहीं बस जाये, सक्षम लोग मौका मिलते ही यही करते हैं , जिनके बेटे बेटी ऐसा करने मे सफल हो जाते हैं उनके मां बाप यहां अपने को सुपर नागरिक का स्वयं दर्जा देकर औरों से सुपर बनने का व्यवहार करने लगते हैं और हमारा मूर्ख समाज उन्हें यह मान्यता दे भी देता है।
निजी तौर पर अमेरिका और उसका कथित जनतंत्र अपन जैसे लोगों की कभी पसंद नहीं रहे। भले ही तकनीकी विकास वहां पर दुनियां में सर्वश्रेष्ठ है। कुल के वावजूद जब हम भारत से तुलना करते हैं तो अमेरिकी समाज वाकई तरक्की-पसंद नजर आता है।इसलिये नहीं कि वहां तकनिकी विकास ज्यादा है बल्कि वहां पर मानव मूल्यों की कीमत भी दुनियां में सबसे ज्यादा हैं, लोकतात्रिक मूल्यों की जड़े भी अन्य देशों की तुलना मे वहां पर ज्यादा गहरी है। हमे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि उस समाज के दामन पर रंगभेद, नस्ल भेद के दाग़ पहले भी रहे हैं और अब भी हैं पर शायद उनका रंगभेद हमारी ब्राह्मणवादी-वर्णव्यवस्था के सामने अब कहीं नहीं ठहरता।
रंगभेद के खिलाफ वहां सदियों की लड़ाइयों का इतिहास है। पर भारत में अगर दक्षिण के केरल और तमिलनाडु आदि जैसे कुछ इलाकों को छोड़ दें तो वर्ण व्यवस्था और सवर्ण-सामंती वर्चस्व के विरुद्ध समाज-सुधार की लड़ाइयां देश के बड़े हिस्से में नहीं लड़ी जा सकीं। फूले, पेरियार , अंबेडकर ने प्रयास किया लेकिन उन्हें वैसा सहयोग और सफलता नहीं मिली जैसा अमेरिकी समाज मे लिंकन , कैनेडी और मार्टिन लूथर किंग को मिली, मार्टिन लूथर किंग के आदर्श तो हमारे गांधी ही थे। आजादी के ७२ साल बाद भी भारत संवैधानिक रूप से ‘जनतंत्र’ लागू करने के ऐलान के बावजूद एक समावेशी और जनतांत्रिक समाज में तब्दील नहीं हो सका। हम आज भी एक लोकतांत्रिक संविधान के होते हुये भी वेद, पुराण, गीता, रामायण में लिखी बातों को ही आदर्श मानकर व्यवहार करते हैं। संविधान को कभी महत्व देते ही नही। इसका कारण क्या है , आज विचार का यह ज्वलंत प्रश्न सामने खड़ा है।
अन्याय, गैर-बराबरी और उत्पीड़न के डरावने उदाहरणों के बावजूद अमेरिकी समाज में भारत जैसी नफ़रती हिंसा, वर्ण-वर्चस्व से प्रेरित सामूहिक जनसंहार, आगजनी और सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएं या उन पर शासन की बेफिक्री या कई मामलों में उत्पीड़कों के लिए शासकीय-संरक्षण जैसे हालात नहीं नज़र आते। ऐसा वहां अमेरिकी समाज में कल्पना के बाहर है। पर लंबी लड़ाइयों और शासन के सकारात्मक कदमों के बावजूद वहां भी रंगभेद के वायरस पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए। लेकिन वहां इसको खतम करे के प्रयास हुये हैं ।
4 अप्रेल 1968 की घटना है नोबल शांति पुरुस्कार विजेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर की महज 39 वर्ष की उम्र में हत्या हो गई थी पूरे अमेरिका में शोक की लहर थी इस खबर के फैल जाने से गोरे और काले लोगो के बीच बरसो से चली आ रही तनातनी अब और उग्र रूप धारण कर सकती थी पूरा अमेरिका बारूद के ढेर पर बैठा था...दंगे शुरू हो गए थे
फिर अचानक से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रॉबर्ट केनेडी एक ट्रक की छत पर चढ़कर दंगों के बीच काले लोगो की बस्ती मैं जाकर घोषणा करते है “आज मैंने अपने दूसरे भाई को खोया है। उसी तरह खोया है। उसी लड़ाई में खोया है। मैं आपके साथ बैठ रोने आया हूँ। आपके मन में आक्रोश होगा कि गोरे लोग इसके जिम्मेदार हैं। तो यह गोरा आपके बीच खड़ा है। आप अपना आक्रोश मुझ पर उतार लें। यह वक्त अमेरिका को एक साथ खड़े होने का है, मार्टिन लूथर किंग के वाशिंगटन में देखे स्वप्न के पूरा करने का। उस नयी सुबह देखने का। जब एक गोरा किसी अश्वेत की मौत पर उसके कंधे पर सर रख कर साथ रोए, और एक अश्वेत एक गोरे की मौत पर।”
हां भारत में भी ऐसा हुआ जब गांधी की हत्या कर दी गयी थी तब कैनेडी जैसे नेता हमने भी दिया था ,वो कौन था ?
30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या कर दी जाती है बापू दंगे रोकने के लिए खुद दंगों की जगहों पर जाकर अपनी जान की परवाह किये बगैर अहिंसा के अपने हथियार से उन दंगो को रोक पाने में सफल हो जाते थे मार्टिन लूथर किंग जूनियर बापू को अपना आदर्श मानते थे और अहिंसा और सत्याग्रह को नस्लीय हिंसा से लड़ने का प्रमुख हथियार मानते थे बापू और मार्टिन लूथर किंग की हत्या करने वाली विचारधारा एक ही थी लेकिन देश अलग अलग थे
बापू की हत्या के बाद जवाहर ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा कहा था कि पिछले वर्षों और महीनों के दौरान इस देश में काफी जहर फैल गया है, और इस जहर का लोगों के दिमाग पर असर पड़ा है । हमें इस जहर का सामना करना चाहिए, हमें इस जहर को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए लेकिन इसके लिए हमें हिंसा और नफरत को त्यागना होगा हम केवल प्रेम से ही इस नफरत के जहर को खत्म कर सकते है।
क्या मोदी और ट्रंप की हिम्मत है कि हिंसा के बीच ऐसे निर्भिक होकर जांयें...ये तो ऐसे घटनाओं को नंदा तक नहीं करते । अमेरिका वाला तो बंकर में घुस गया , यहां वाला का क्या होगा समय बतायेगा।
केनेडी और नेहरू ने बताया की एक सच्चा नेता वो होता है जो सच और देश को जिंदा रखने के लोगो के बीच अपनी जान की परवाह किए बगैर जाता है वो अपने समाज और देश को जोड़ने के लिए खुद को भी कुर्बान करने में परहेज नही करता है ऐसी स्थिति में ही एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य की नींव मजबूत की जाती है जब सारी साम्प्रदायिक और विभाजनकारी शक्तियां उसे तोड़ने की साजिश रचती है हमने तो गांधी की हत्या पर मिठाईयां बांटने वाले को महिमामंडित किया। स्कूल , कालेज , वि.वि . की जगह मंदिर - मस्जिद को तरजीह दिया, नारा तो वसुधैव कुटुंबकम का लगाते है और छुआछूत , जाति , धर्म को आधार बनाया, ऐसे दोगले समाज का हमने निर्माण करने मे , गांधी ,नेहरू के विचारों की हत्या करने मे ७२ साल बिता दिये , हिंदू, मुसलमान से हम उपर उठ नही सके तो क्या खाक अमेरिका से तुलना करेंगे।
आज पूरे विश्व और भारत का दुर्भाग्य है कि ऐसे नेता अब बन नही पा रहे है , न अमेरिका में लिंकन या कैनेडी हैं , न भारत में गांधी और नेहरू....आज भारत लिंचिंग हब बनकर रह गया है कब, किसको , कहाँ जाति, धर्म संप्रदाय के नाम पर मार दिया जायेगा ,कहा नहीं जा सकता ? सत्ता में बैठे हुये लोग, जब ऐसे अपराधी जेल से जमानत पाकर निकलते हैं तो फूल माला से उनका स्वागत करके महिमामंडन करते हैं।
अमेरिका में हाल ही में एक पुलिसकर्मी द्वारा वहां के एक अफ्रीकी-अमेरिकन नागरिक जार्ज फ्लायड की नृशंस हत्या इसका ठोस उदाहरण है। अतीत में भी दमन-उत्पीड़न के ऐसे अनेक मामले समय-समय पर दर्ज़ होते रहे हैं। इन सब पर अमेरिकी समाज और शासन में हमेशा हलचल भी हुई। प्रतिरोध की संगठित आवाजें भी उठी हैं। आज अमेरिका में अनेक जगहों पर कोरोना के ख़तरे और तमाम शासकीय पाबंदियों की परवाह किए बगैर जार्ज फ्लायड जैसे एक मामूली व्यक्ति की हत्या पर लोग आंदोलित हैं। अश्वेत और श्वेत सभी इस प्रतिरोध का हिस्सा हैं। डेरेक शौविन सहित उन चार पुलिसकर्मियों को जो इसमे शामिल थे को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है और आगे की कार्रवाई के लिए जांच जारी है। जनता सड़कों पर उतर आई है। हवाइट हाउस के सामने भी प्रदर्शन जारी हैं। इन प्रदर्शनों में श्वेतों की भी उपस्थिति रही है। क्या भारत मे ऐसा संभव है ? कदापि नहीं ।
ये तो मानना पड़ेगा, अमेरिकी समाज की और जो भी खामियां हों, वह भारत के सड़े हुए मनुवादी-वर्चस्व के वर्णवादी समाज से बिल्कुल अलग हैं। यहां तो पढ़े-लिखे बौद्धिक मिज़ाज वाले सवर्णों का बड़ा हिस्सा आज भी उत्पीड़ित समाज के लोगों के जुल्मों-सितम के विरुद्ध नहीं खड़ा होता। सकारात्मक कार्रवाई के बेहद साधारण संवैधानिक कदम भी उसे नागवार गुजरते हैं। वह ऐसे अपराध को भी वह खुलेआम मेरिट से जोड़कर सही साबित करने में लग जाता है। लेकिन मूल संवैधानिक प्रावधानों के बगैर उच्च वर्ण के लोगों के लिए जब नौकरियों में १०% आरक्षण की व्यवस्था होती है तो वह उसका विरोध करने की बात तो दूर रही, उसे गैर जरूरी बताने में भी शर्म महसूस नहीं करता। इस बात पर भी उसे शर्म नहीं आती कि नौकरशाही, मीडिया और न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर ही नहीं, विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर प्रोफेसरों तक की सूची में भी सिर्फ कुछ ही वर्णों के लोग पदासीन नज़र आते हैं। ऐसे लोग नौकरियों मे मेरिट की बात करते हैं जब देश के PM की बात आती है तो वही लोग एक अनपढ़, गोधरा जैसे नरसंहार के विलेन को नेहरू की जगह और एक तड़िप्पार अपराध के अभियुक्त को पटेल की जगह चुनते हैं । अपने आदि देवता के बराबर हर हर महादेव की जगह हर हर मोदी का नारा लगाकर जिताने मे अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। भारत में मोदी और अमेरिका में ट्रंप जैसे नस्लवादी लोग चुने जायेंगे तो जार्ज फ्लाएड हों या अखलाख का हश्र यही होना है ।
आज पूरे विश्व और भारत का दुर्भाग्य है कि लिंकन, कैनेडी, गांधी, नेहरू जैसे नेता अब बन नहीं पा रहे है और ट्रंप मोदियों का भरमार है....
Comments
Post a Comment